जब तेज रफ्तार जिंदगी का असर वैवाहिक जीवन पर पड़ने लगे तो समझना चाहिए कि हम किस दोराहे पर खड़े हैं? पारिवारिक जीवन में टूटन का असर न सिर्फ पति-पत्नी के रिश्ते पर पड़ता है, बच्चे भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। दिल्ली में पति-पत्नी के बीच तलाक के मामले बढ़ना, इस बात का संकेत भी है कि महानगरों में तलाक की पश्चिमी कुसंस्कृति तेजी से पांव पसार रही है। चिंता की बात है कि विभिन्न अदालतों में लगभग छह हजार तलाक के मामले विचाराधीन हैं। प्रति वर्ष तलाक के मामले बढ़ने का अर्थ है कि कहीं न कहीं परिवार में एक दूसरे के प्रति असहमति और तकरार बढ़ रही है। इसकी अनेक वजहें गिनाई जा सकती हैं, परंतु संयुक्त परिवारों का एकल परिवारों में बदलना भी एक बड़ी वजह है। संयुक्त परिवार में पति-पत्नी के बीच किसी मुद्दे को लेकर असहमति होने पर घर का कोई बड़ा बुजुर्ग मामले को सुलझा कर समाप्त करा देते थे, पर एकल परिवारों में यह संभव नहीं रहा है। रिश्तों में खटास की एक वजह टीवी और सिनेमा का बढ़ता असर है। असल में, सिनेमा और टीवी में अभिनेता और अभिनेत्रियों के बीच रोमांस और तौर-तरीकों को देखकर प्रफुल्लित तो हुआ जा सकता है, मगर जिंदगी का यथार्थ से सामना होने पर सपनों का महल भरा-भरा कर गिर जाता है। जीवन का वास्तविक अर्थ दुख और सुख, रोग और भोग के बीच संतोषमय जीवन जीना है। पर सहनशीलता का अभाव और मामूली बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पति-पत्नी के बीच की कड़वाहट अक्सर तलाक की घृणा में बदल जाती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज में आज भी वैवाहिक संबंध को जन्म-जन्मांतर का रिश्ता माना जाता है। पति-पत्नी जीवन की गाड़ी के दो पहिये हैं, यदि कोई भी एक पहिया बीच में खराब हो जाए तो गाड़ी चलना संभव नहीं है। लिहाजा समन्वय, संतुलन और समझदारी ही इस रिश्ते की गाड़ी को आगे बढ़ा सकती है। महानगर में कामकाजी लड़कियों की एक बड़ी संख्या लिव-इन संबंधों की राह पकड़ने से भी गुरेज नहीं कर रही हैं। ऐसे में, इन कारणों को खोजना ही होगा कि आधुनिक जीवन में तलाक की असल वजह कौन से ही हैं? क्योंकि रोग का असली कारण जाने बिना उसका सही उपचार संभव नहीं है।
उम्र का आखिरी पड़ाव वह दौर माना जाता है जब पति-पत्नी एक दूसरे की जरूरत को बेहतर ढंग से समझते हैं और इस बीच यदि गिले-शिकवेआ भी जाते हैं तो वे एक-दूसरे की गलतियों को अनदेखी कर क्षमा कर देते हैं लेकिन पारिवारिक न्यायालय की तस्वीर जुदा है। यहां तलाक के 60 फीसदी से ज्यादा मामले ऐसे हैं जिनमें 45 से 60 वर्ष की आयु के पति-पत्नियों के बीच एक-दूसरे से तलाक मांगी गयी है। हैरानी की बात यह भी है कि अधिकतर मामलों में अलग होने की पहल पति ने की है।
पिछले छह-सात वर्षों में बहुतायत में आ रहे इस तरह के मामलों ने खुद पारिवारिक न्यायालय को अचम्भे में डाल दिया है। इसके लिए एडवोकेट जहां बचपन में कर दी गयी शादी को जिम्मेदार मान रहे हैं। वहीं आधुनिक जीवनशैली भी इन मामलों को हवा देने में पीछे नहीं है। यही नहीं उत्तर प्रदेश के पारिवारिक न्यायालय में ऐसी पहल उन पतियों द्वारा सबसे ज्यादा की जा रही है जो उच्च पदों पर कार्यरत हैं।
हाल में आये ऐसे ही केस का हवाला देते हुए पारिवारिक न्यायालय के राम उग्रह शुक्ला बताते हैं अभी गत दिनों 50 वर्षीय पत्नी और 53 वर्षीय पति के संबंधों की परिणति तलाक के रूप में हुई है। पति सरकारी विभाग में वरिष्ठ अधिकारी है। पत्नी सीधी-साधी घरेलू महिला शिक्षा से उसका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। नाबालिग अवस्था में हुए इस विवाह ने एक-दूसरे को कुछ भी समझने का मौका नहीं दिया। उच्च पद पर तैनात पति को इस विवाह ने धीरे-धीरे हीनता से भर दिया।
आखिरकार उसने अपने बच्चे के दायित्व से मुक्ति पाने के साथ पत्नी को सोची समझी साजिश के तहत पहले तो मायके भेज दिया। इसके बाद तलाक का नोटिस भिजवा दिया। इतना ही नहीं उसने अपने साथ काम कर रही महिला से गुपचुप तरीके से विवाह भी कर लिया। पत्नी को इस बात से इतना दुख पहुंचा कि उसने बिना किसी आपत्ति के तलाक की सहमति दे दी।
पारिवारिक न्यायालय ही नहीं राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण भी इस बात की काफी हद तक पुष्टि करता है। उनका भी मानना है, सुलह-समझौते के आधार पर निर्णय के मामले में करीब आधे मामले इसी प्रकार के आ रहे हैं।
न्यायालय के एक अन्य अधिवक्ता पी.सी. श्रीवास्तव कहते हैं ऐसे मामलों में कई बार पति अपनी पत्नी को इतना ज्यादा उत्पीड़ित कर देता है कि पत्नी खुद-ब-खुद तलाक के लिए राजी हो जाती है। वह बताते हैं अभी कुछ दिन पहले एक बड़ी कम्पनी में कार्यरत पति ने दूसरी महिला से विवाह करने के लिए यही हथकंडा अपनाया। उसने अपने चार बच्चों व पत्नी को इतना उत्पीड़ित करना शुरू कर दिया कि पत्नी खुद तलाक के लिए सामने आ गयी। हालांकि उक्त व्यक्ति अपने परिवार को अच्छा भरण पोषण दे रहा है। उन्होंने इसके लिए बचपन में हुए विवाह को जिम्मेदार ठहराया।
बहरहाल इस उम्र में बढ़ते तलाक के ग्राफ को देखकर न्यायालय से लेकर राज्य विधिक प्राधिकरण तक चिन्तित है। राज्य विधिक प्राधिकरण के तहत परिवारिक न्यायालय की सलाहकार रही व मनोवैज्ञानिक डा. मधु पाठक कहती हैं कि इन वादों में वादी केवल 'तलाक' की ही मांग कर रहे हैं वह किसी समझौते के लिए तैयार नहीं होते। वह बताती हैं महिलाओं ने तलाक की गुहार तभी लगायी है जब उम्र के लम्बे दौर में पति से मार खाते खाते सब्र का बांध टूट गया। लिहाजा बच्चों की जिम्मेदारी पूरी होते ही इस रिश्ते से अलग होने का फैसला ले लिया। उधर न्यायालय के अधिवक्ता यह भी कहते हैं कि कुछ वर्षों से तलाक के वह मामले भी देखने को मिल रहे हैं जो वर्षों से 'कोर्ट में लम्बित पड़े थे। जिनका निस्तारण उन दोनों की युवावस्था की बजाय अब हो रहा है।
भारत में शादियां टूटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। पति-पत्नी में झगड़े के कारण पिछले एक दशक में देश भर में तलाक दर तीन गुना हो गई है। दिल्ली को तो तलाक की राजधानी कहा जाने लगा है। यहां पिछले वर्ष तलाक के नौ हाार मामले दर्ज हुए। अनुमान है कि दिल्ली की पारिवारिक अदालतों में हर वर्ष दस हाार से अधिक तलाक की अर्जियां डाली जाती हैं। मुंबई में तो स्थिति और भी बुरी है। वहां सन् 2002 के बाद प्रतिदिन यदि पांच शादियां पंजीकृत होती हैं तो तलाक के दो मामले भी दर्ज होते हैं। बेंगलुरु में सालाना पांच हाार और मुंबई में चार हाार अर्जियां डाली जाती हैं। यहां तक कि सबसे ज्यादा शिक्षित राज्य केरल तथा पंजाब व हरियाणा में भी तलाक के मामले बढ़े हैं। कई लोग इसका पूरा दारोमदार शिक्षित कामकाजी महिलाओं पर डालते हैं। यह सच है कि टकराव का कारण धैर्य की कमी और अहं होता है और इसी कारण कई बार तलाक की नौबत आ जाती है। यह भी कि वैश्वीकरण, आर्थिक उदारीकरण और सामाजिक-नैतिक मूल्यों में आए बदलाव के कारण महिलाओं की सोच बदली है। अपने अधिकारों के प्रति भी वे जागरूक हुई हैं। और अब अपनी गरिमा से वे घटिया समझौता नहीं करना चाहतीं। पति परमेश्वर और सात जन्मों के साथ जसे जुमले अब उन्हें रास नहीं आते। अपने स्वतंत्र अस्तित्व, करियर और गरिमा को बनाए रखने के प्रति वे सजग हैं। पर इसका अर्थ यह कतई नहीं कि वे पति के साथ रहना नहीं चाहतीं। वे दाम्पत्य तो चाहती हैं, पर अत्याचार सह कर नहीं। सच्ची सहभागिता तभी संभव है जब एक-दूसर के प्रति प्रेम व विश्वास हो। विवाह संस्था पर मंडरा रहे इस संकट से चिंतित अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन रक्षक ने तो चेतावनी दे दी है कि अगर समय रहते इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो तलाक के मामले में भारत विश्व का अग्रणी देश बन जाएगा। बढ़ते भौतिकवाद, लड़के-लड़कियों में भेदभाव, आसमान छूती महत्वाकांक्षाओं और तनावपूर्ण पेशेवर जिंदगी ने मनुष्य को स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया है। पति-पत्नी की एक-दूसर से उम्मीदें बढ़ गई हैं। जब उन्हें लगता है कि उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हो रहीं तो वे धैर्य रखने व एक-दूसर को समझने की बजाय तलाक लेना बेहतर समझते हैं। अब प्यार और विवाह की परिभाषा बदल गई है। अधिकांश दंपती आपसी संबंधों की गरमाहट को भूल कर एक अनजानी खुशी की तलाश में भटक रहे हैं। कई बार तो विवाह के कुछ समय बाद ही पति-पत्नी के बीच मनमुटाव शुरू हो जाता है। एसे-एसे किस्से सामने आते हैं कि लगता है विवाह का मकसद पत्नी को नीचा दिखाना या फिर पैसा हड़पना था। पहले बात ढंक दी जाती थी, पर अब वह असंभव है। यही वजह है कि अब शादी के नाम पर पढ़ी-लिखी युवतियों के मन में अनजाना भय भी घर करने लगा है। परिचित और करीबी रिश्तेदार भी पहले की तरह रिश्ते कराने में कतराने लगे हैं। शादी दो परिवारों का संबंध न रहकर लेन-देन का व्यवसाय बन जाए और परस्पर प्रेम और विश्वास का स्थान शक और अहं ले ले तो हर चीज पैसे से तौली जाने लगती है और तब टूट बढ़ती है। यह स्वीकार करने की बजाय आज भी कुछ लोगों का मानना है कि महिलाओं के सशक्ितकरण के नाम पर ही परिवार यूं टूट रहे हैं और टकराव बढ़ रहा है। अक्सर दहेा कानून के लड़की वालों द्वारा दुरुपयोग का आरोप भी लगता है। (पुरुषों के एक संगठन ने तो इसके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है।) कानून के दुरुपयोग की बात कुछ हद तक सच मानी जा सकती है, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि ज्यादातर लड़कियों के लिए इस कानून ने कवच का काम किया है। जांच के बाद भी अधिकांश मामलों में पुरुष और उसका परिवार ही दोषी पाए जाते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने शादी का पंजीकरण कराने और साथ ही स्त्री-धन व विवाह में दिए जाने वाले सामान की पूरी सूची जमा कराने का सुझाव दिया था, जिस पर अभी भी कायदे से अमल नहीं किया जाता। अगर शादियां टूटने से बचानी हैं तो उस सुझाव पर अमल किया जाना चाहिए। साथ ही स्कूलों में नैतिक शिक्षा के साथ-साथ बच्चों को सिखाया जाना चहिए कि वैवाहिक जीवन को कैसे सफल बनाया जा सकता है। विवाह संबंधी सार मामलों का फैसला एक ही अदालत में लाया जाना भी जरूरी है। विवाह से पूर्व लड़के-लड़की के साथ-साथ भावी सास-ससुर की काउंसिलिंग भी आवश्यक है। क्योंकि अपने भविष्य की सोच कर पति-पत्नी तो एक-दूसर से अलग हो जाते हैं, लेकिन बच्चों के भविष्य की चिंता कोई नहीं करता। इनका अपना जीवन तो प्रभावित होता ही है, तलाक का सबसे ज्यादा खामियाजा बच्चों को भुगतना पड़ता है।
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Barkhanjali hi nam kyo kc.kya tumare mind m chlta h ...apni noutanki krne se baj ni aaoge...fitrt abi b whi h..show baji jbki lutere ho tum sbko weakness n emotion ko lutate ho
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