दिल्ली के आर.के.पुरम कॉलोनी में आम और नीम के सुंदर पेड़ है...उस दिन नीम के पेड़ पर एक कोयल आई...सिर्फ आई ही नहीं, गाने भी लगी...फिर दूसरे दिन आई...फिर गाया...तीसरे दिन भी....। गाना आखिरी उसकी फितरत जो ठहरी...और हुआ यह कि कॉलोनी के लोग परेशान हो गए...परेशान इसलिए कि यह कोयल दिन में नहीं गाती थी, वह तो अपनी आदत के अनुसार पौ फटने से फहले सवेरे चार बजे गाना शुरु कर देती थी...पहले उन्होंने शू-शू करके, तालियां बजाकर कोयल को भागना चाहा....फिर घरों की बालकोनी में खड़े होकर उस पर पानी फेंका....मतलब यह कि दिल्ली की उस कॉलोनी के लोगों ने हर संभव कोशिश की, उस सुरीली कोयल से पीछा छुड़ाने की...हां, दिल्ली की ही बात है यह....और शामे अवध तथा सुबहे-बनारस, छोड़कर दिल्ली आये एक शायर को इस बात का दुःख है कि अपने-आप को सभ्य कहने वाले लोग इस तरह का शर्मनाक व्यवहार करते हैं...उन्हें इस बात की भी हैरानी है कि कारों,ट्रकों,बसों,रेलगाड़ियों,हवाई जहाजों की कानफोड़ आवाज से घिरे दिल्ली के इन लोगों को कोयल की मीठी आवाज से परेशानी क्या है.......।
अपने दुःख और हैरानी को उन्होंने अपने तक सीमित नहीं रखा... पहुंचाया लोगों तक..एक लेख लिखा उन्होंने, जिसमें उन्होंने बताया कि दिल्ली में पकृति से आदमी का रिश्ता सिर्फ चिड़ियाघरों और नेशनल पार्को तक सीमित है और दिल्ली में चिड़ियों के कलरव की कमी हमेशा खलती रही है...मैं समझता हूं उन साहब की इसी बात में उनके दुःख और हैरानी का उत्तर छिपा हैं....।
आज इस दौर में सचमुच कोयल का कूकना फैशन में नहीं आया है...और दिल्ली के लोग कालिदास भी नहीं है कि कोयल की कुहू-कुहू उन्हें प्यार की लौ जगाती हुई लगे....फिर, कोयल हवाई जहाज तो है नहीं कि उसे भी दिल्ली वालों की नींद खराब करने का अधिकार दे दिया जाए...होती होगी कोयल की आवाज मीठी...किया होगा कालिदास और विद्यापति ने कोयल की मीठी तान का गुणगान....कहा होगा कीट्स ने किसी बुलबुल से कि वह मरने के लिए नहीं पैदा हुई...लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि किसी चिड़िया को नींद में खलल डालने का अधिकार दे दिया जाए...दिल्ली की उस कॉलोनी के लोगों ने कोयल पर पानी डालकर यही तो कहना चाहा था...।
लेकिन इस सब के बावजूद यह सवाल बरकरार है कि सवेरे-सवेरे कूकने वाली किसी कोयल पर पानी डालने का मन किसी को कैसे कर सकता है...हम प्रकृति से दूर होते जा रहे है, इसे तो शायद कहने की भी जरुरत नहीं है, क्योंकि इस बढ़ती दूरी को हमने अपनी फितरत मान लिया है अब इसी में खुश रहने लग गए हैं...कोयल की कुहू-कुहू भी सिर्फ एक मीठी आवाज भर नहीं होती....तितली के पंखों को देखकर जैसे भीतर कहीं कोई भावना जन्म लेती है, वैसे ही खिलता फूल या बढ़ता पौधा सिर्फ एक प्रक्रिया नहीं हैं...पर ऐसा कुछ जीवन में रच बस गया है कि अब हमें यह एहसास ही अटपटा लगने लगा है...चिड़ियाघर जाना तो अच्छा लगता है, पर यह हम कभी नहीं सोचते कि पिंजरे में बंद जीवन अप्राकृतिक है...जो अप्राकृतिक है, उससे प्यार करके तो प्रकृति से रिश्ता नहीं सध सकता...पर प्रकृति से रिश्ता साधना जरुरी है...इस बात को समझना भी जरुरी है कि आदमी के भीतर जंगलीपन को या आदमी की नृशंस प्रवृत्ति को मिटाने की प्रक्रिया में लहरों की, फूलों की, चिड़ियों की, जानवरों की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है...दुर्भाग्य ही है कि आदमी इस प्रक्रिया पर पूर्णविराम लगाने का पक्षधर होता जा रहा है- अन्यथा कोयल पर पानी क्यों फेंकता है वह...यहां तक कि बच्चे भी अब यह नहीं सोचते...मासूम बचपन को हजार सपनों संग रिझाने वाली तितली को उन्होंने बस टेलीविजन पर ही देखा है...वे अक्सर पूछ लिया करते हैं- ये जुगनू क्या होता है पापा...दिल्ली के बाहरी इलाकों में ये जुगनू अब भी पाए जाते हैं...पिछले दिनों एक दोस्त जब अपने बच्चों के साथ ऐसी ही एक जगह गए, तो उनके बच्चे जुगनू देखकर डरने लगे...याद कीजिए अपने उस बचपन को, जब जुगनू पकड़ना एक खेल हुआ करता था.......।
नोट- यह लेख दैनिक हिन्दुस्तान समाचार पत्र के संपादकीय पेज पर दिनांक 12 मई 2006 को छप चुका है....।
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