अब
कॉलोनियों से बसते शहर,
प्रत्येक फ्लैट में होते परिवार
फिर भी, ये नहीं लगते घर।
चूंकि नहीं दिखलायी देता
आस-पड़ोस के बीच
एकता, सौहार्द,प्यार...।
ऑगन भी नहीं होता
कमरों के बीच
कि औरतें, साथ मिल-बैठकर गँवई अंदाज में करें
अपने दुःख-सुख पर विचार...।
बच्चों को पढ़ाई से फुर्सत नहीं, न मम्मी को...।
ट्यूशन-स्कूल से छुट्टी....।
पापा से हो गई हो जैसे सबकी कुट्टी...।
उन्हें भी रहती बस कमाने की धुन
सबको उलझाये रखती, एक अजीब-सी उधेड़बुन
एक ही छत के नीचे, कोई किससे कितना परिचित
नहीं कह सकते
कोई सामने आता, किसी का करता तलाश
एहसास सबको कि हम बनकर
रह गये है जिंदा लाश, गौरतलब सवाल
कंकरीट के इस जंगल से निकलकर
आदमी जाए किधर......?
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