बार-बार खॉसकर
अपनी उपस्थिति को
नींद से जगाना चाहता है
वह अवकाश प्राप्त विधुर...।
मांग नहीं सकता
एक प्याली चाय
सिर्फ मिल जाने की खोज में
याद करता है, मरी हुई पत्नी को
धुंधलाए चश्मे की शीशे को
साफ करता है
अपने करीब से चुपचाप
झोंके-से निकलते हुए
अपने बेटे को देखने के लिए...।
पिता का पत्र बांचती है पुत्रवधू
ऑखें कुछ नम हैं शायद
आज वह जाएगी मायके
अपने पिता की,सेवा में...।
बूढ़ा खॉसता है
टूटी खटिया चरमराने लगती है
वह सोचता है उसकी बेटी भी
शायद इसी तरह.......
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