एक दिन एक लड़की ने देखी
ऑगन के कोने में
उग गयी है घास
उखाड़ने के लिए उसने
ज्यों ही बढ़ाया हाथ
बोल उठी घास-
मैं भी तुम्हारी तरह अवांछित हूं
लेकिन ईंट पत्थरों के बीच
देखो सिर उठाकर खड़ी हूं....
रौंदते है लोग मुझे पैरों से
किसी ने आज तक नहीं दिया
मुझे खाद पानी
न सींचा, न सहेजा
मगर पनपती हूं, बढ़ती हूं
मैं अपने आप।
कायम रखती हूं अपना अस्तित्व
तुम्हारी तरह।
जानती हो न।
मैं भी बिताती हूं जीवन
सहलाते हुए तलवे
कोमल स्पर्श।
और रौंदे जाने के बाद भी
छा जाती हूं आंखों में
हरियाली बनकर
तुम्हारी तरह
छूने और तोड़ने की प्यास बन
देखती हूं आसमान
उखड़ती हूं तिनका-तिनका
मगर मांगती नहीं कुछ
तुम्हारी तरह।
इसीलिए मुझे जीने दो
अपनी परछाई समझ।
क्या अब भी उखाड़ फेंकोगी मुझे
गर्भ से स्थित
कन्या भ्रूण की तरह...।
सोचना एक बार
उखाड़ने से पहले-
दूर तक फैली हरियाली के बारे में।
चारे की तरह करते इस्तेमाल
दूध देते मवेशियों के बारे में
ओस से भीगे मेरे बदन के
कोमल स्पर्श के बारे में।
तब शायद बदल जाय
तुम्हारा निश्चय
मेरे बारे में...........।
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स्त्री विमर्श और संवेदनाओं को जोड़ने का इससे अच्छा तरीका शायद और कुछ नहीं हो सकता..वाकई निर्जीव मगर शाश्वत सत्य की तरह स्त्री का भी अस्तित्व है..मगर क्या पुरुषप्रधान समाज की व्यवस्था इसे स्वीकार पायेगी?
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