तुम्हारा हर संताप उचित है।
लगता है मैं स्वयं को ही,
आज तक समझ नहीं पाया हूं।
कई बार तुमसे अपने व्यक्तित्व का,
दूसरा पहलू सुन मैं उव्दिग्न हो जाता हूं,
पुनः लगता है यह प्रतिक्रिया मेरे लिए अत्यंत सहज है।
क्या मैं भावविहीन प्राणी हूं,
नहीं श्वेतांजलि तुमने मुझे नया जीवन दिया है,
नई चेतना और नवीन आलोक में,
मुझे निखार दिया है।
आज तक जिसने मुझे अपनाया है...
शायद किसी न किसी स्वार्थ के कारण ही
उन लाखों प्राणियों में तुम ही एक ऐसी हो
जितना कि मेरे देवत्व की धूमिलता में,
इतना कुछ होने पर भी श्वेतांजलि
मैं तुम्हें कुछ भी तो दे नहीं पाया।
आजीवन एक ही बात खलती रहेगी,
वह यह कि मैं तुम्हारे प्रतिन्याय नहीं कर पाया,
केवल एक दोष लेकर तुम्हारे प्रतिन्याय नहीं कर पाया,
केवल एक दोष लेकर तुम्हारे
जीवन में प्रवेश किया
और अपनी भूल से तुम्हारा
उज्जवल भाल भी कलंकित कर दिया।
श्वेतांजलि
क्या सच ही मैं तुम्हारा दोषी नहीं हूं.....।
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दोषी कौन है और क्यों है यह शायद जानना अधिक जरुरी है मगर कुंवर जी इस दोष की शुरुआत भी आपसे ही होती है और अन्त भी इसलिए खुद को दोषी ना मान इसे नियति का खेल और विडम्बना ही मानिए...सारे कष्ट अपने आप मिट जायेंगे
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